भील जनजाति का इतिहास एवं संस्कृति
भील जनजाति के प्रमुख मेले
बेणेश्वर मेला :-
'आदिवासियों का कुम्भ' नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर का मेला भीलों का सबसे बड़ा मेला है जो माघ माह की पूर्णिमा को डूंगरपुर जिले में सोम,माही एवं जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता हैं।
घोटिया अम्बा :-
बेणेश्वर के अलावा एक और बड़ा मेला भरता है 'घोटिया अम्बा मेला'। यह मेला बांसवाड़ा जिले में घोटिया नामक स्थान पर चैत्र अमावस्या को भरता हैं।
गोतमेश्वर मेला :-
गौतमेश्वर का मेला प्रतापगढ़ जिले में अरनोद कस्बे के पास वैशाख पूर्णिमा को भारत हैं।
ऋषभदेव मेला :-
ऋषभदेव का मेला उदयपुर जिले में धुलैव में चैत्र कृष्ण अष्टमी को प्रतिवर्ष भरता है जिसमे बड़ी मात्रा में भील स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। यहां पर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवन आदिनाथ की काले पत्थर की मूर्ति हैं। काले रंग की होने के कारण भील जाति के लोग इन्हें 'काला' बाबा के नाम से जानते हैं। भील जाति के लोग केसरियानाथ (काला बाबा) को चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते
'आदिवासियों का कुम्भ' नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर का मेला भीलों का सबसे बड़ा मेला है जो माघ माह की पूर्णिमा को डूंगरपुर जिले में सोम,माही एवं जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता हैं।
घोटिया अम्बा :-
बेणेश्वर के अलावा एक और बड़ा मेला भरता है 'घोटिया अम्बा मेला'। यह मेला बांसवाड़ा जिले में घोटिया नामक स्थान पर चैत्र अमावस्या को भरता हैं।
गोतमेश्वर मेला :-
गौतमेश्वर का मेला प्रतापगढ़ जिले में अरनोद कस्बे के पास वैशाख पूर्णिमा को भारत हैं।
ऋषभदेव मेला :-
ऋषभदेव का मेला उदयपुर जिले में धुलैव में चैत्र कृष्ण अष्टमी को प्रतिवर्ष भरता है जिसमे बड़ी मात्रा में भील स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। यहां पर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवन आदिनाथ की काले पत्थर की मूर्ति हैं। काले रंग की होने के कारण भील जाति के लोग इन्हें 'काला' बाबा के नाम से जानते हैं। भील जाति के लोग केसरियानाथ (काला बाबा) को चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते
भील जनजाति की वेशभूषा
पुरुषों के वस्त्र :-
पोत्या :- सिर पर पहने जाने वाले सफेद साफे को पोत्या कहा जाता हैं।
फेंटा :- सिर पर बान्धे जाने वाला लाल/पीला/केसरिया साफा फेंटा कहलाता हैं।
फालू :- कमर में बांधे जाने वाला अंगोछा फालू कहलाता हैं।
ढेपाड़ा :- भील पुरुषों द्वारा कमर से घुटनों तक पहने जाने वाली तंग धोती।
खोयतू :- कमर में पहन जाने वाला वस्त्र जिसे लंगोटी भी कहा जाता हैं।
बंडी/कमीज/अंगरखी/कुर्ता :- शरीर पर पहनने का वस्त्र।
स्त्रियों के वस्त्र :-
सिंदूरी :- लाल रंग की साड़ी होती हैं।
पिरिया :- भील जाति में दुल्हन द्वारा पहना जाने वाला पीले रंग का लंहगा होता हैं जिसे 'पिरिया' कहा जाता हैं।
कछाबू :- भील जाति की स्त्रियों द्वारा घुटनों तक पहना जाने वाला घाघरा 'कछाबू' कहलाता हैं।
लूगड़ा :- लूगड़ा को ओढ़नी भी कहा जाता हैं जो भील स्त्रियों द्वारा पहनी जाने वाली साड़ी होती हैं। भील स्त्रियों द्वारा ओढ़ी जाने वाली लोकप्रिय ओढ़नी 'तारा भांत की ओढ़नी' हैं।
परिजनी :- भील जाति की औरतें पैरों में पीतल की मोटी चूड़ियाँ पहनती हैं जो परिजनी कहलाती हैं।
भील जनजाति पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों को पवित्र मानकर उनकी 'टोटम' के रूप में पूजा करते हैं। टोटम भीलों का कुलदेवता हैं।
कालाबावजी :-
भगवान केसरियानाथ जी को कालाबावजी,कालाजी या ऋषभदेव के नाम से भी जाना जाता हैं। भील जाति के लोग कालाबावजी के चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी भी झूठ नहीं बोलते हैं। भील जाति शपथ की पक्की होती हैं ।
भराड़ी देवी :-
दक्षिणी राजस्थान में भीली जीवन में व्याप्त वैवाहिक भित्ति चित्रण की प्रमुख लोकदेवी भराड़ी नाम से जानी जाती हैं। जिस घर में भील जाति की युवती का विवाह होता हैं उसके घर में जंवाई द्वारा भराड़ी देवी का चित्र बनाया जाता हैं, जिसमें सामान्यतया हल्दी रंग देखने को मिलता हैं। भराड़ी देवी का प्रचलन मुख्यतः कुशलगढ़ क्षेत्र की ओर देखने को मिलता हैं। शगुन की दृष्टि से भराड़ी देवी का मुंह पूर्व दिशा की ओर रहता हैं।
विश्ववंती देवी :-
भील जनजाति की आराध्यदेवी हैं विश्ववंती देवी। भील जनजाति का सम्बन्ध झालावाड़ जिले से भी हैं। झालावाड़ जिले में स्थित मनोहरथाना दुर्ग में भीलों की आराध्य विश्ववंती देवी का मंदिर हैं।
आमजा माता :-
उदयपुर जिले में केलवाड़ा के रीछड़े गाँव में आमजा माता का मंदिर हैं। आमजा माता भीलों की कुलदेवी हैं, जिसकी पूजा एक भील भोपा व एक ब्राह्मण पुजारी करता हैं।
इस गीत के माध्यम से भीलनी प्रदेश गये अपने पति को सन्देश भेजती हैं।
हमसीढों :-
इस गीत को भील स्त्री और पुरुष साथ मिलकर गाते हैं। ये उत्तरी मेवाड़ के भीलों का प्रसिद्ध लोकगीत हैं।
पोत्या :- सिर पर पहने जाने वाले सफेद साफे को पोत्या कहा जाता हैं।
फेंटा :- सिर पर बान्धे जाने वाला लाल/पीला/केसरिया साफा फेंटा कहलाता हैं।
फालू :- कमर में बांधे जाने वाला अंगोछा फालू कहलाता हैं।
ढेपाड़ा :- भील पुरुषों द्वारा कमर से घुटनों तक पहने जाने वाली तंग धोती।
खोयतू :- कमर में पहन जाने वाला वस्त्र जिसे लंगोटी भी कहा जाता हैं।
बंडी/कमीज/अंगरखी/कुर्ता :- शरीर पर पहनने का वस्त्र।
स्त्रियों के वस्त्र :-
सिंदूरी :- लाल रंग की साड़ी होती हैं।
पिरिया :- भील जाति में दुल्हन द्वारा पहना जाने वाला पीले रंग का लंहगा होता हैं जिसे 'पिरिया' कहा जाता हैं।
कछाबू :- भील जाति की स्त्रियों द्वारा घुटनों तक पहना जाने वाला घाघरा 'कछाबू' कहलाता हैं।
लूगड़ा :- लूगड़ा को ओढ़नी भी कहा जाता हैं जो भील स्त्रियों द्वारा पहनी जाने वाली साड़ी होती हैं। भील स्त्रियों द्वारा ओढ़ी जाने वाली लोकप्रिय ओढ़नी 'तारा भांत की ओढ़नी' हैं।
परिजनी :- भील जाति की औरतें पैरों में पीतल की मोटी चूड़ियाँ पहनती हैं जो परिजनी कहलाती हैं।
लोकदेवी एवं लोकदेवता
टोटम :-भील जनजाति पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों को पवित्र मानकर उनकी 'टोटम' के रूप में पूजा करते हैं। टोटम भीलों का कुलदेवता हैं।
कालाबावजी :-
भगवान केसरियानाथ जी को कालाबावजी,कालाजी या ऋषभदेव के नाम से भी जाना जाता हैं। भील जाति के लोग कालाबावजी के चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी भी झूठ नहीं बोलते हैं। भील जाति शपथ की पक्की होती हैं ।
भराड़ी देवी :-
दक्षिणी राजस्थान में भीली जीवन में व्याप्त वैवाहिक भित्ति चित्रण की प्रमुख लोकदेवी भराड़ी नाम से जानी जाती हैं। जिस घर में भील जाति की युवती का विवाह होता हैं उसके घर में जंवाई द्वारा भराड़ी देवी का चित्र बनाया जाता हैं, जिसमें सामान्यतया हल्दी रंग देखने को मिलता हैं। भराड़ी देवी का प्रचलन मुख्यतः कुशलगढ़ क्षेत्र की ओर देखने को मिलता हैं। शगुन की दृष्टि से भराड़ी देवी का मुंह पूर्व दिशा की ओर रहता हैं।
विश्ववंती देवी :-
भील जनजाति की आराध्यदेवी हैं विश्ववंती देवी। भील जनजाति का सम्बन्ध झालावाड़ जिले से भी हैं। झालावाड़ जिले में स्थित मनोहरथाना दुर्ग में भीलों की आराध्य विश्ववंती देवी का मंदिर हैं।
आमजा माता :-
उदयपुर जिले में केलवाड़ा के रीछड़े गाँव में आमजा माता का मंदिर हैं। आमजा माता भीलों की कुलदेवी हैं, जिसकी पूजा एक भील भोपा व एक ब्राह्मण पुजारी करता हैं।
भील जनजाति के लोकगीत
सूंवटियो :-इस गीत के माध्यम से भीलनी प्रदेश गये अपने पति को सन्देश भेजती हैं।
हमसीढों :-
इस गीत को भील स्त्री और पुरुष साथ मिलकर गाते हैं। ये उत्तरी मेवाड़ के भीलों का प्रसिद्ध लोकगीत हैं।
भील जनजाति के लोकनृत्य
आदिम सभ्यता और संस्कृति की धनी भील जनजाति की अभिव्यक्ति इनके लोकनृत्यों तथा लोकगीतों से हुई हैं।
भील जनजाति के प्रमुख लोकनृत्य निम्न हैं :-
हाथी मना :-
विवाह के अवसर पर भील जाति के पुरुष द्वारा घुटनों के बल बैठकर तलवार घुमाते हुए ये नृत्य किया जाता हैं।
गैर नृत्य :-
होली के महीने यानि फाल्गुन मास में भील पुरुषों द्वारा गैर नृत्य किया जाता हैं। गैर में नर्तक अपने हाथ में छड़ लेकर एक दूसरे की छड़ों से टकराते हुए गोल घेरे में नृत्य करते हैं।
युद्ध नृत्य :-
पहाड़ी क्षेत्रों में भील जाति के लोग दो दल बनाकर तीर-कमान , भाले , बरछी और तलवारों के साथ तालबद्ध नृत्य किया जाता हैं।
द्विचकी नृत्य :-
भील जाति के लोग विवाह के अवसर पर पुरुष और महिलाएं दो वृत्त बनाकर नृत्य करते हैं , जिसमें बाहरी वृत्त में पुरुष बाएँ से दाहिनी ओर तथा अंदर के वृत्त में महिलाएं दाएं से बाएं ओर नृत्य करती हुई चलती हैं। लय का विराम होने पर एक झटके के साथ सभी अपनी गति व दिशा बदल लेते हैं।
घूमरा :-
आसपुर,सागवाड़ा,सीमलवाड़ा (डूंगरपुर),कुशलगढ़,घाटोल,आनन्दपुरी (बांसवाड़ा),पीपलखूंट (प्रतापगढ़), तथा उदयपुर के कोटड़ा व मामेर क्षेत्र में भील जाति की महिलाओं द्वारा ढोल व थाली के साथ अर्धवृत्त बनाकर घूम-घूम कर नृत्य किया जाता हैं। दो दल बनाए जाते हैं एक दल गाता हैं तथा दूसरा दल उसकी पुनरावृत्ति करके नाचता हैं।
गवरी या राई नृत्य :-
'लोकनाट्यों का मेरुनाट्य' के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान का सबसे प्राचीन लोकनाट्य हैं 'गवरी'। इसका मुख्य आधार शिव तथा भस्मासुर की कथा हैं। कथानक शिव को केंद्र बनाकर किया गया हैं। यह नृत्य राखी के दूसरे दिन से शुरू होकर 40 दिन (सवा महीना) चलता हैं।
भील जनजाति के प्रमुख लोकनृत्य निम्न हैं :-
हाथी मना :-
विवाह के अवसर पर भील जाति के पुरुष द्वारा घुटनों के बल बैठकर तलवार घुमाते हुए ये नृत्य किया जाता हैं।
गैर नृत्य :-
होली के महीने यानि फाल्गुन मास में भील पुरुषों द्वारा गैर नृत्य किया जाता हैं। गैर में नर्तक अपने हाथ में छड़ लेकर एक दूसरे की छड़ों से टकराते हुए गोल घेरे में नृत्य करते हैं।
युद्ध नृत्य :-
पहाड़ी क्षेत्रों में भील जाति के लोग दो दल बनाकर तीर-कमान , भाले , बरछी और तलवारों के साथ तालबद्ध नृत्य किया जाता हैं।
द्विचकी नृत्य :-
भील जाति के लोग विवाह के अवसर पर पुरुष और महिलाएं दो वृत्त बनाकर नृत्य करते हैं , जिसमें बाहरी वृत्त में पुरुष बाएँ से दाहिनी ओर तथा अंदर के वृत्त में महिलाएं दाएं से बाएं ओर नृत्य करती हुई चलती हैं। लय का विराम होने पर एक झटके के साथ सभी अपनी गति व दिशा बदल लेते हैं।
घूमरा :-
आसपुर,सागवाड़ा,सीमलवाड़ा (डूंगरपुर),कुशलगढ़,घाटोल,आनन्दपुरी (बांसवाड़ा),पीपलखूंट (प्रतापगढ़), तथा उदयपुर के कोटड़ा व मामेर क्षेत्र में भील जाति की महिलाओं द्वारा ढोल व थाली के साथ अर्धवृत्त बनाकर घूम-घूम कर नृत्य किया जाता हैं। दो दल बनाए जाते हैं एक दल गाता हैं तथा दूसरा दल उसकी पुनरावृत्ति करके नाचता हैं।
गवरी या राई नृत्य :-
'लोकनाट्यों का मेरुनाट्य' के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान का सबसे प्राचीन लोकनाट्य हैं 'गवरी'। इसका मुख्य आधार शिव तथा भस्मासुर की कथा हैं। कथानक शिव को केंद्र बनाकर किया गया हैं। यह नृत्य राखी के दूसरे दिन से शुरू होकर 40 दिन (सवा महीना) चलता हैं।
भील जनजाति के लोकवाद्य
रबाज :-
कमायचा की तरह का वाद्य होता हैं लेकिन इसे गज से न बजा कर अँगुली के नाखूनों से बजाय जाता हैं। पाबूजी की लोकगाथा गाने वाले 'नायक' या 'भील' जाति के लोगों द्वारा बजाया जाता हैं।
ठुकाको :-
इसे घुटनों के बीच में दबाकर बजाया जाता हैं। भील जाति के लोग मुख्यतः दीपावली पर बजाते हैं।
डैंरु :-
डमरू का बड़ा रूप हैं जो आम की लकड़ी का बना होता हैं। डैंरु के साथ कांसी की थाली भी बजाई जाती हैं। भील जाति के लोग बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ से लकडीं की डंडी की सहायता से बजाते है।
नड़ :-
माता या भैरव का गुणगान करने वाले राजस्थानी भोपे इसे बजाते हैं। करणा भील नड़ का प्रसिद्ध वादक हैं।
भगत आंदोलन :-
डूंगरपुर व बांसवाड़ा की सदियों से शोषित व उत्पीड़ित भील जनजाति को संगठित कर सामाजिक सुधार व जनजागृति हेतु गोविन्द गिरी ने 'भगत आंदोलन' चलाया। गोविन्द गुरु ने 'सम्प सभा' के माध्यम से भीलों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों,कुरीतियों को दूर किया तथा भीलों को अपने मुलभूत अधिकारों का अहसास कराया।
एकी आंदोलन :-
भीलों को अन्याय और अत्याचार, शोषण व उत्पीड़न से मुक्त करने के उद्देश्य से मोतीलाल तेजावत ने एकी आंदोलन के माध्यम से संगठीत किया। ये आंदोलन भील क्षेत्र भोमट में चलाया था इसलिए इसे भोमट भील आंदोलन भी कहा जाता हैं।
वनवासी सेवा संघ :-
भीलों सहित आदिवासियों में सामाजिक व राजनितिक जागरण तथा चेतना लाने के लिए श्री भूरेलाल बया, भोगीलाल पण्ड्या व राजकुमार मानसिंह जैसे समाज सुधारकों ने 'वनवासी सेवा संघ' की स्थापना की।
शोध संस्थान :-
उदयपुर में स्थित 'माणिक्य लाल आदिम जाति शोध संस्थान ' भीलों की संस्कृति को बचाये रखने का कार्य कर रही हैं।
भीलों के घरों को टापरा या कू कहा जाता हैं। टापरा के बाहर बने बरामदे को ढालिया कहा जाता हैं।
गमेती :-
भीलों के सभी गांवों की पंचायत के मुखिया को गमेती कहा जाता हैं। गांव का मुखिया पालवी या तदवी कहलाता हैं।
विधवा-विवाह :-
भील जाति में विधवा विवाह प्रचलन में हैं लेकिन छोटे/भाई की विधवा को बड़ा/छोटा भाई अपनी पत्नी नहीं बना सकता।
डाम :-
रोगों का उपचार करने की विधि डाम देना कहलाता हैं।
आजीविका :-
शिकार,वन से प्राप्त वस्तुओं का विक्रय तथाकृषि इस जनजाति की आजीविका के मुख्य साधन हैं।
रणघोष :-
भील जनजाति द्वारा शत्रुओं से निपटने के लिए सामूहिक रूप से रंणघोष किया जाता हैं उसे 'फाइरे-फाइरे' कहा जाता हैं। सामूहिक रणघोष मतलब ढोल बजानाअथवा किलकारी मारने पर भील जाति के लोग अपने अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं।
चिमाता :-
भील जाति द्वारा पहाड़ी ढलानों पर की जाने वाली झुमिंग कृषि को चिमाता कहा जाता हैं।
पाल :-
भील जाती के कई फला का समूह या गांव को पाल कहा जाता हैं।
पालवी :-
पाल के मुखिया को 'पालवी' कहा जाता हैं।
फला :-
भील जाति के घरों के एक मोहल्ले को 'फला' कहा जाता हैं।
खानपान :-
जिन क्षेत्रों में भील जनजाति पायी जाती हैं उन क्षेत्रों में मक्का प्रमुख फसल हैं। इस कारण इनके भोजन में मुख्य रूप से मक्का की रोटी तथा प्याज का साग होता हैं। महुआ से बनी शराब तथा ताड का रस (इसे भीलों का सोमरस भी कहा जाता हैं।) भील लोग बड़े चाव से पीते हैं। महुआ को भीलों का कल्पवृक्ष भी कहा जाता हैं।
भगत :-
धार्मिक संस्कार करवाने वाला व्यक्ति भील जाति में 'भगत' के नाम से जाना जाता हैं।
हाथी वैण्डो प्रथा :-
अनूठी वैवाहिक प्रथा हैं जिसमें पवित्र वृक्ष पीपल,साल,सागवान एवं बाँस को साक्षी मानकर वर और वधु (दूल्हा-दुल्हन) पति-पत्नी बन जाते हैं।
तलाक :-
जो भील पुरुष अपनी पत्नी का त्याग करना चाहता हैं , वह अपनी जाति के पंचों के सामने नई साड़ी के पल्ले में रुपया बांधकर उस साड़ी को चौड़ाई की तरफ से फाड़कर पत्नी को पहना देता हैं इसे 'छेड़ा फाड़ना' या 'तलाक' कहा जाता हैं।
कमायचा की तरह का वाद्य होता हैं लेकिन इसे गज से न बजा कर अँगुली के नाखूनों से बजाय जाता हैं। पाबूजी की लोकगाथा गाने वाले 'नायक' या 'भील' जाति के लोगों द्वारा बजाया जाता हैं।
ठुकाको :-
इसे घुटनों के बीच में दबाकर बजाया जाता हैं। भील जाति के लोग मुख्यतः दीपावली पर बजाते हैं।
डैंरु :-
डमरू का बड़ा रूप हैं जो आम की लकड़ी का बना होता हैं। डैंरु के साथ कांसी की थाली भी बजाई जाती हैं। भील जाति के लोग बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ से लकडीं की डंडी की सहायता से बजाते है।
नड़ :-
माता या भैरव का गुणगान करने वाले राजस्थानी भोपे इसे बजाते हैं। करणा भील नड़ का प्रसिद्ध वादक हैं।
सामाजिक सुधार एवं जनजागृति
भील जनजाति में सामाजिक सुधार एवं जनजागृति में संत मावजी,गुरु गोविंदगिरी,मोतीलाल तेजावत,भोगीलाल पांड्या,माणिक्यलाल वर्मा ,हरिदेव जोशी,गौरीशंकर उपाध्याय और सुरमल दासजी का उल्लेखनीय योगदान रहा हैं।भगत आंदोलन :-
डूंगरपुर व बांसवाड़ा की सदियों से शोषित व उत्पीड़ित भील जनजाति को संगठित कर सामाजिक सुधार व जनजागृति हेतु गोविन्द गिरी ने 'भगत आंदोलन' चलाया। गोविन्द गुरु ने 'सम्प सभा' के माध्यम से भीलों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों,कुरीतियों को दूर किया तथा भीलों को अपने मुलभूत अधिकारों का अहसास कराया।
एकी आंदोलन :-
भीलों को अन्याय और अत्याचार, शोषण व उत्पीड़न से मुक्त करने के उद्देश्य से मोतीलाल तेजावत ने एकी आंदोलन के माध्यम से संगठीत किया। ये आंदोलन भील क्षेत्र भोमट में चलाया था इसलिए इसे भोमट भील आंदोलन भी कहा जाता हैं।
वनवासी सेवा संघ :-
भीलों सहित आदिवासियों में सामाजिक व राजनितिक जागरण तथा चेतना लाने के लिए श्री भूरेलाल बया, भोगीलाल पण्ड्या व राजकुमार मानसिंह जैसे समाज सुधारकों ने 'वनवासी सेवा संघ' की स्थापना की।
शोध संस्थान :-
उदयपुर में स्थित 'माणिक्य लाल आदिम जाति शोध संस्थान ' भीलों की संस्कृति को बचाये रखने का कार्य कर रही हैं।
प्रमुख विशेषताएँ
टापरा :-भीलों के घरों को टापरा या कू कहा जाता हैं। टापरा के बाहर बने बरामदे को ढालिया कहा जाता हैं।
गमेती :-
भीलों के सभी गांवों की पंचायत के मुखिया को गमेती कहा जाता हैं। गांव का मुखिया पालवी या तदवी कहलाता हैं।
विधवा-विवाह :-
भील जाति में विधवा विवाह प्रचलन में हैं लेकिन छोटे/भाई की विधवा को बड़ा/छोटा भाई अपनी पत्नी नहीं बना सकता।
डाम :-
रोगों का उपचार करने की विधि डाम देना कहलाता हैं।
आजीविका :-
शिकार,वन से प्राप्त वस्तुओं का विक्रय तथाकृषि इस जनजाति की आजीविका के मुख्य साधन हैं।
रणघोष :-
भील जनजाति द्वारा शत्रुओं से निपटने के लिए सामूहिक रूप से रंणघोष किया जाता हैं उसे 'फाइरे-फाइरे' कहा जाता हैं। सामूहिक रणघोष मतलब ढोल बजानाअथवा किलकारी मारने पर भील जाति के लोग अपने अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं।
चिमाता :-
भील जाति द्वारा पहाड़ी ढलानों पर की जाने वाली झुमिंग कृषि को चिमाता कहा जाता हैं।
पाल :-
भील जाती के कई फला का समूह या गांव को पाल कहा जाता हैं।
पालवी :-
पाल के मुखिया को 'पालवी' कहा जाता हैं।
फला :-
भील जाति के घरों के एक मोहल्ले को 'फला' कहा जाता हैं।
खानपान :-
जिन क्षेत्रों में भील जनजाति पायी जाती हैं उन क्षेत्रों में मक्का प्रमुख फसल हैं। इस कारण इनके भोजन में मुख्य रूप से मक्का की रोटी तथा प्याज का साग होता हैं। महुआ से बनी शराब तथा ताड का रस (इसे भीलों का सोमरस भी कहा जाता हैं।) भील लोग बड़े चाव से पीते हैं। महुआ को भीलों का कल्पवृक्ष भी कहा जाता हैं।
भगत :-
धार्मिक संस्कार करवाने वाला व्यक्ति भील जाति में 'भगत' के नाम से जाना जाता हैं।
हाथी वैण्डो प्रथा :-
अनूठी वैवाहिक प्रथा हैं जिसमें पवित्र वृक्ष पीपल,साल,सागवान एवं बाँस को साक्षी मानकर वर और वधु (दूल्हा-दुल्हन) पति-पत्नी बन जाते हैं।
तलाक :-
जो भील पुरुष अपनी पत्नी का त्याग करना चाहता हैं , वह अपनी जाति के पंचों के सामने नई साड़ी के पल्ले में रुपया बांधकर उस साड़ी को चौड़ाई की तरफ से फाड़कर पत्नी को पहना देता हैं इसे 'छेड़ा फाड़ना' या 'तलाक' कहा जाता हैं।
Nice.
ReplyDeleteमारवाड़ के भीलों की कुलदेवी
ReplyDeleteखेती_ममोई माता
चुड़ी _ चिद़णी माता
मेणा_नागणेशी
डगला_मालणा माता